कभी कभी कई वर्षों में एक फ़िल्म ऐसी आती है जिसे देखनें के बाद लगता है जैसे आप नें एक बहुत अच्छा काम किया हो , एक सुन्दर सा अहसास छोड जाती है और आप का फ़िल्मों के प्रति एक नया 'विश्वास' सा बननें लगता है । 'डोर' एक ऐसी ही फ़िल्म है ।
एक चुनौती भरा विषय लेकिन विषय पर 'फ़ोकस' सीधी सादी पटकथा , बेकार की नाटकीयता नहीं , सुन्दर - सहज अभिनय , खूबसूरत 'फ़ोटोग्राफ़ी' ।
कहानी बता कर आप का मज़ा नहीं बिगाड़ना चाहता ।
'गुल पनाग' (जिन की मैं शायद पहली फ़िल्म देख रहा था) का अभिनय फ़िल्म की जान है । अपनें किरदार को जिया है उन्होनें । उन की आंखों में चमक , अपनें लक्ष्य के प्रति ईमानदारी और विश्वास देखनें लायक है । श्रेयस तलपदे (जिन्हे पहले 'इकबाल' में देखा था) एक हल्की फ़ुल्की भूमिका में बहुत जमें हैं और फ़िल्म को गम्भीर होनें से बचाते हैं । उन का फ़िल्म के अंत में 'गुल पनाग' से अपनें प्रेम का इज़हार और उतनी ही सहजता से 'गुल पनाग' का उत्तर याद रहेगा । आयशा टकिया का अभिनय भी अच्छा है । किरदार की मासूमियत को उन्होनें अच्छा निभाया है । फ़िल्म में जयपुर और जोधपुर के खूबसूरत स्थानों को चुना गया है जो देखनें लायक हैं ।
नागेश कुकुनूर का निर्देशन बहुत कसा हुआ है , एक लीक से हट कर कहानी का चुनाव किया है उन्होनें (अपनी पिछली फ़िल्म इकबाल की तरह) । नागेश की उम्र बहुत कम है , उन से आगे बहुत सम्भावनायें हैं ।
'डोर' पिछले कई वर्षों मे आनें वाली सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों मे से एक लगी । अगर हाथ लगे तो ज़रूर देखियेगा और बताइयेगा कि फ़िल्म और मेरी पहली 'फ़िल्म आलोचना' कैसी लगी ?
Wednesday, November 22, 2006
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10 comments:
अनूप भाई, मुझे भी ये फिल्म बहुत अच्छी लगी। मेरी समीक्षा यहाँ देखें।
पहले भी इसके अच्छे रिव्यू पढ़ चुका हूँ । जब फिल्म देख लूँगा फिर आपकी समीक्षा पर राय व्यक्त करूँगा।
अब तो देखनी ही पड़ेगी। आज ही जुगाड़ करते हैं।
तारीफ़ तो बहुत सुन चुका हूँ इस फ़िल्म की पर अभी तक डीवीडी नहीं मिली
मौका मिलते ही जरूर देखूँगा
जीतु भाई:
आप की समीक्षा पढी । ज़्यादा अच्छी लगी । मैनें तो बस यूँ ही लिख दिया था ।
मुझे 'गुल पनाग' का 'चरित्र' और अभिनय ज़्यादा प्रभावशाली लगे थे ।
फ़िल्म मैनें भी अपनी 'पर्मानेंट कलेक्शन' में शामिल कर ली है । निस्सन्देह पिछले एक या दो दशकों की सब से बेहतर फ़िल्मों से एक ।
यथार्थ चित्रण । सही लिखा आपने, वास्तव में बहुत अच्छा चलचित्र है ।
बहुत बढ़ियां समीक्षा की है, अनूप भाई. इसमें आपने फिल्म की आलोचना तो कहीं की ही नहीं है, और वाकई फिल्म है भी इस लायक, कि आलोचना की गुंजाईश भी नहीं, फिर क्यूँ आप इसे फिल्म आलोचना कह रहे हैं, यह तो एक जबदस्त समीक्षा है, कम शब्दों में पूरा विश्लेषण-बधाई!! इस क्रम को जारी रखें.
अभी तक मैंने फिल्म देखा तो नहीं पर लगता है अब देखना ही पडे़गा ।
अनूप जी,
यह फिल्म मैंने IVORY COAST से भारत आते समय Emirates Airbus में देखी और यह फिल्म मुझे इतनी अच्छी लगी कि उसके बाद भारत पहुँचकर SAHARA ONE पर भी देखी। नागेश कुकुनूर की पिछली फिल्में 'इकबाल' और 'तीन दिवारे' भी मुझें बेहद पसंद आई।
अनूप जी आपकी फिल्म समीक्षा अच्छी लगी।
प्रवीण परिहार
अनूप जी,
मैंने भी कुछ ही दिन पहले यह फिल्म देखी थी, वाकई शानदार फिल्म है, इतनी तरक्की के बावजूद समाज की तरह-तरह बेडि़यों में बंधी स्त्री की शानदार गाथा, जो केवल यथार्थ का चित्रण ही नहीं करती, बल्कि उसे बदलने के विकल्प पर सोचने के बिंदु भी छोड़ जाती है। वैसे मुझे इस फिल्म का अंतिम दृश्य ज्यादा प्रभावशाली लगा।
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