Wednesday, January 28, 2009

नज़्म की चोरी - गुलज़ार


एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था
---
गुलज़ार

4 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

अनूप जी

गुलजार की कविता पढ़ाकर बड़ा ही नेक काम किया। बहुत ही आकर्षक रचना है।
अजित गुप्‍ता

योगेन्द्र मौदगिल said...

भार्गव जी आपकी प्रस्तुति को नमन

नीरेंद्र नागर said...
This comment has been removed by the author.
नीरेंद्र नागर said...

और गुलज़ार साहब ने किसकी नज़्म चुराई, यह भी बता देते। नहीं मालूम हो तो इस लिंक पर जाएं - https://www.facebook.com/notes/prem-chand-gandhi/%E0%A4%87%E0%A4%B8%E0%A5%87-%E0%A4%9A%E0%A5%8B%E0%A4%B0%E0%A5%80-%E0%A4%95%E0%A4%B9%E0%A5%87%E0%A4%82%E0%A4%97%E0%A5%87-%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%95%E0%A4%BF-%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A4%BE/10150859327863312