Tuesday, May 01, 2007

"है तो है" - दीप्ति मिश्र की एक गज़ल और नज़्म

गज़ल:

वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बगा़वत है तो है
सच को मैनें सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़मानें की नज़र में ये हिमाकत है तो है
कब कहा मैनें कि वो मिल जाये मुझको, मैं उसे,
गै़र ना हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है ।
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अपूर्ण
हे सर्वज्ञाता, सर्वव्यापी, सार्वभौम !
क्या सच में तुम सम्पूर्ण हो ?
हाँ कहते हो तो सुनो --
सकल ब्रह्माण्ड में
यदि कोई सर्वाधिक अपूर्ण है
तो वह तुम हो ।
होकर भी नहीं हो तुम।
बहुत कुछ शेष है अभी,
बहुत कुछ होना है जो घटित होना है।
उसके बाद ही तुम्हें सम्पूर्ण होना है।
हे परमात्मा !
मुझ आत्मा को विलीन होना है अभी तुममें।
मेरा स्थान अभी रिक्त है तुम्हारे भीतर।
फ़िर तुम सम्पूर्ण कैसे हुए?
तुममें समा कर मैं शायद पूर्ण हो जाऊँ;
किन्तु तुम?
तुम तो तब भी अपूर्ण ही रहोगे
क्योंकि --
मुझ जैसी कितनी आत्माओं की रिक्तता से
भरे हो तुम ।
जानें कब पूर्ण रूप से भरेगा तुम्हारा यह--
रीतापन , खालीपन
जाने कब तक ?
जाने कब तक ?
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दीप्ति मिश्र की किताब ' है तो है ' से ....

7 comments:

Unknown said...

आपकी पसंद बहुत पसंद आती है।

रंजू भाटिया said...

sundar hai....pehle bhi padha hai isko aaj fir se moka mila padhne ka ...shukriya

Manish Kumar said...

'अपूर्ण' अच्छी लगी । पेश करने का शुक्रिया !

Anonymous said...

लगता है 'है तो है' आपसे उधार माँगनी पडेगी :)

Sanjeet Tripathi said...

बहुत बढ़िया!!
शुक्रिया!!

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

'है तो है' काफ़िया इलाहाबाद के बुजुर्ग शायर एहतराम इस्लाम ने बहुत पहले बड़ी खूबसूरती से इस्तेमाल किया था. उनकी ग़ज़ल का मत्तला है-

अग्निवर्षा है तो है, बर्फबारी है तो है,
मौसमों के दरमियाँ एक जंग ज़ारी है तो है.

अनूप भार्गव said...

विजय जी:
ब्लौग पर आने के लिये धन्यवाद ।
इस्लाम साहब का शेर बहुत अच्छा लगा । पूरी गज़ल का ’लिंक’ कहीं उपलब्ध हो तो बताइयेगा ।