Monday, October 30, 2006
अश्आर मिरे यूँ तो जमाने के लिये हैं
अश्आर मेरे यूँ तो जमाने के लिये हैं
कुछ शेर फ़क़त उनको सुनानें के लिये हैं
अब ये भी नहीं ठीक कि हर दर्द मिटा दें
कुछ दर्द कलेज़े से लगानें के लिये हैं
आंखों में जो भर लोगे, तो काँटो से चुभेंगे
ये ख्वाब तो पलकों में सजानें के लिये हैं
देखूँ तिरे हाथों को तो लगता है तिरे हाथ
मन्दिर में फ़क़त दीप जलानें के लिये हैं
सोचो तो बड़ी चीज़ है तहज़ीब बदन की
वरना तो बदन आग बुझानें के लिये है
ये इल्म का सौदा, ये रिसाले, ये किताबें
इक शख़्स की यादों को भुलानें के लिये है
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जाँनिसार अख़्तर
इल्म:ज्ञान , सौदा:पागलपन , रिसाले: पत्रिकाएँ
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2 comments:
संदल से महकती हुई पुर्कैफ़ हवा का
झोंका कोई टकराये तो लगता है कि तुम हो
जां निसार अख्तर
bahut badhiya gajal
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