Monday, February 01, 2021

तहज़ीब हाफ़ी

तहज़ीब हाफ़ी पाकिस्तान में नई पीढ़ी के सब से प्रतिभावान और लोकप्रिय शायरों में से हैं | उन की शायरी में स्वाभाविकता , भोलापन , गहराई और अपने व्यक्तित्व के जैसा ही फक्कड़पन मन को छूता है | उन के कुछ लोकप्रिय और कुछ मेरे पसंदीदा अशआर और कुछ रिकॉर्डिंग -- तुम्हें हुस्न पर दस्तरस है ? मुहब्बत-मुहब्बत बड़ा जानते हो ? तो फिर ये बताओ कि तुम उसकी आँखों के बारे में क्या जानते हो ? ये जुगराफ़िया, फ़लसफ़ा, साइकोलॉजी, साइंस, रियाज़ी वगैरा ये सब जानना भी अहम है, मगर उसके घर का पता जानते हो ? ---- तेरा चुप रहना मिरे ज़ेहन में क्या बैठ गया इतनी आवाज़ें तुझे दीं कि गला बैठ गया यूँ नहीं है कि फ़क़त मैं ही उसे चाहता हूँ जो भी उस पेड़ की छाँव में गया बैठ गया इतना मीठा था वो ग़ुस्से भरा लहजा मत पूछ उस ने जिस जिस को भी जाने का कहा बैठ गया उस की मर्ज़ी वो जिसे पास बिठा ले अपने इस पे क्या लड़ना फुलाँ मेरी जगह बैठ गया बज़्म-ए-जानाँ में नशिस्तें नहीं होतीं मख़्सूस जो भी इक बार जहाँ बैठ गया बैठ गया ----- किसे ख़बर है कि उम्र बस उस पे ग़ौर करने में कट रही है कि ये उदासी हमारे जिस्मों से किस ख़ुशी में लिपट रही है मैं उस को हर रोज़ बस यही एक झूट सुनने को फ़ोन करता सुनो यहाँ कोई मसअला है तुम्हारी आवाज़ कट रही है --- पराई आग पे रोटी नहीं बनाऊँगा मैं भीग जाऊँगा छतरी नहीं बनाऊँगा फ़रेब दे के तिरा जिस्म जीत लूँ लेकिन मैं पेड़ काट के कश्ती नहीं बनाऊँगा --- ये एक बात समझने में रात हो गई है मैं उस से जीत गया हूँ कि मात हो गई है --- मेरे बस में नहीं वरना कुदरत का लिखा हुआ काटता तेरे हिस्से में आए बुरे दिन कोई दूसरा काटता तेरे होते हुए मोमबत्ती बुझाई किसी और ने क्या ख़ुशी रह गयी थी जन्मदिन की, मैं केक क्या काटता ------- ये किस ने बाग से उस शख्स को बुला लिया है परिंद उड़ गए पेड़ो ने मुँह बना लिया है उसे पता था मैं छूने में वक्त लेता हूँ सो उस ने वस्ल का दौरानीया बढा लिया है ----- महीनो बाद दफ्तर आ रहे हैं हम इक सदमे से बाहर आ रहे हैं तेरी बाँहों से दिल _ उकता गया हैं अब इस झूले में चक्कर आ रहे हैं --- जो तेरे साथ रहते हुए सोगवार हो, लानत हो ऐसे शख्स पे और बे-शुमार हो --- पलट कर आये तो सबसे पहले तुझे मिलेंगें.. उसी जगह पर जहाँ कई रास्ते मिलेंगें..!! अग़र कभी तेरे नाम पर जंग हो गयी तो.. हम ऐसे बुझदिल भी पहली सफ में खड़े मिलेंगें. --- -------------- https://www.youtube.com/watch?v=x24ChG44D6s https://youtu.be/PEzjHmTbCp8 https://www.youtube.com/watch?v=ZLah5rZoNqw https://www.youtube.com/watch?v=1q9R4v3BoHA

Sunday, May 05, 2019


वसीम बरेलवी साहब मुझे अच्छे लगते हैं। कई बार उन से मिलने का मौक़ा भी मिला है। कभी कभी वह ऐसी बात कह जाते हैं जिसे याद रखने और उद्धृत करने की इच्छा होती है। 

कुछ ऐसे ही अशआर जो मेरी डायरी में क़ैद हैं :

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अपने हर इक लफ़्ज़ का ख़ुद आईना हो जाऊँगा
उसको छोटा कह के मैं कैसे बड़ा हो जाऊँगा

तुम गिराने में लगे थे तुम ने सोचा भी नहीं
मैं गिरा तो मसअला बनकर खड़ा हो जाऊँगा

मुझ को चलने दो अकेला है अभी मेरा सफ़र
रास्ता रोका गया तो क़ाफ़िला हो जाऊँगा

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हादसों की ज़द पे हैं तो मुस्कुराना छोड़ दें
ज़लज़लों के ख़ौफ़ से क्या घर बनाना छोड़ दें

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वो झूठ बोल रहा था बड़े सलीक़े से
मैं ऐतबार न करता तो और क्या करता

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मैं उस से नज़रे मिलाते हुए भी डरता हूँ
कि आँखो आँखो में वो जहन पढ़ने लगता है
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वो समझता था, उसे पाकर ही मैं रह जाऊंगा
उसको मेरी प्यास की शिद्दत का अन्दाज़ा नहीं
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मैं इस उम्मीद पे डूबा के तू बचा लेगा
अब इसके बाद मेरा इम्तेहान क्या लेगा

कलेजा चाहिए दुश्मन से दुश्मनी के लिए
जो बे-अमल है वो बदला किसी से क्या लेगा

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उसूलों पे जहाँ आँच आये टकराना ज़रूरी है
जो ज़िन्दा हों तो फिर ज़िन्दा नज़र आना ज़रूरी है

नई उम्रों की ख़ुदमुख़्तारियों को कौन समझाये
कहाँ से बच के चलना है कहाँ जाना ज़रूरी है

थके हारे परिन्दे जब बसेरे के लिये लौटें
सलीक़ामन्द शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है

बहुत बेबाक आँखों में त'अल्लुक़ टिक नहीं पाता
मुहब्बत में कशिश रखने को शर्माना ज़रूरी है

सलीक़ा ही नहीं शायद उसे महसूस करने का
जो कहता है ख़ुदा है तो नज़र आना ज़रूरी है
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कौन-सी बात कहाँ, कैसे कही जाती है
ये सलीक़ा हो, तो हर बात सुनी जाती है
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सभी को छोड़ कर खुद पर भरोसा कर लिया मैंने 
वो मैं, जो मुझ में मरने को था ज़िंदा कर लिया मैनें 
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Thursday, May 28, 2009

देह की गोलाईयों तक आ गये / चंद्रसेन विराट

दुष्यंत जी के बाद शायद पहली बार इतनी चुभती हुई गज़ल पढनें को मिली । एक एक शेर अन्दर तक असर करता है ।


तुम कभी थे सूर्य लेकिन अब दियों तक आ गये
थे कभी मुख्पृष्ठ पर अब हाशियों तक आ गये

यवनिका बदली कि सारा दृष्य बदला मंच का
थे कभी दुल्हा स्वयं बारातियों तक आ गये

वक्त का पहिया किसे कुचले कहां कब क्या पता
थे कभी रथवान अब बैसाखियों तक आ गये

देख ली सत्ता किसी वारांगना से कम नहीं
जो कि अध्यादेश थे खुद अर्जियों तक आ गये

देश के संदर्भ मे तुम बोल लेते खूब हो
बात ध्वज की थी चलाई कुर्सियों तक आ गये

प्रेम के आख्यान मे तुम आत्मा से थे चले
घूम फिर कर देह की गोलाईयों तक आ गये

कुछ बिके आलोचकों की मानकर ही गीत को
तुम ॠचाएं मानते थे गालियों तक आ गये

सभ्यता के पंथ पर यह आदमी की यात्रा
देवताओं से शुरु की वहशियों तक आ गये
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चंद्रसेन विराट

Wednesday, January 28, 2009

नज़्म की चोरी - गुलज़ार


एक नज़्म मेरी चोरी कर ली कल रात किसी ने
यहीं पड़ी थी बालकनी में
गोल तिपाही के ऊपर थी
व्हिस्की वाले ग्लास के नीचे रखी थी
नज़्म के हल्के हल्के सिप मैं
घोल रहा था होठों में
शायद कोई फोन आया था
अन्दर जाकर लौटा तो फिर नज़्म वहां से गायब थी
अब्र के ऊपर नीचे देखा
सूट शफ़क़ की ज़ेब टटोली
झांक के देखा पार उफ़क़ के
कहीं नज़र ना आयी वो नज़्म मुझे
आधी रात आवाज़ सुनी तो उठ के देखा
टांग पे टांग रख के आकाश में
चांद तरन्नुम में पढ़ पढ़ के
दुनिया भर को अपनी कह के
नज़्म सुनाने बैठा था
---
गुलज़ार

Sunday, September 02, 2007

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है - राही मासूम रज़ा की नज़्म

अभी राही मासूम रज़ा साहब के जन्म दिन पर पहले कुरबान अली साहब की खूबसूरत पोस्ट और उस के बाद युनुस भाई और मनीष के संस्मरण पढ कर रज़ा साहब की बचपन में पढी एक नज़्म याद आ गई । बहुत बरस हो गये उसे पढे लेकिन हिला कर रख दिया था इस ने । किताब मेरे पास नहीं है लेकिन आज भी पंक्तियां ज़बानी याद सी हैं । किताब का नाम 'मैं एक फ़ेरीवाला' था , पिछली भारत यात्राओं में उसे खोजनें की काफ़ी कोशिश की लेकिन शायद 'आउट औफ़ प्रिंन्ट' होनें के कारण कहीं उपलब्ध नही है, अगर किसी को जानकारी हो तो मुझे बतायें ।

नज़्म स्मृति से दे रहा हूँ , गलतियां हो सकती हैं :


मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो ।
मेरे उस कमरे को लूटो
जिस में मेरी बयाज़ें जाग रही हैं
और मैं जिस में तुलसी की रामायण से सरगोशी कर के
कालिदास के मेघदूत से ये कहता हूँ
मेरा भी एक सन्देशा है
मेरा नाम मुसलमानों जैसा है
मुझ को कत्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो ।
लेकिन मेरी रग रग में गंगा का पानी दौड़ रहा है,
मेरे लहु से चुल्लु भर कर
महादेव के मूँह पर फ़ैंको,
और उस जोगी से ये कह दो
महादेव ! अपनी इस गंगा को वापस ले लो,
ये हम ज़लील तुर्कों के बदन में
गाढा , गर्म लहु बन बन के दौड़ रही है ।
----
राही मासूम रज़ा (मैं एक फ़ेरीवाला से)

Tuesday, May 01, 2007

"है तो है" - दीप्ति मिश्र की एक गज़ल और नज़्म

गज़ल:

वो नहीं मेरा मगर उससे मुहब्बत है तो है
ये अगर रस्मों, रिवाज़ों से बगा़वत है तो है
सच को मैनें सच कहा, जब कह दिया तो कह दिया
अब ज़मानें की नज़र में ये हिमाकत है तो है
कब कहा मैनें कि वो मिल जाये मुझको, मैं उसे,
गै़र ना हो जाये वो बस इतनी हसरत है तो है ।
******
अपूर्ण
हे सर्वज्ञाता, सर्वव्यापी, सार्वभौम !
क्या सच में तुम सम्पूर्ण हो ?
हाँ कहते हो तो सुनो --
सकल ब्रह्माण्ड में
यदि कोई सर्वाधिक अपूर्ण है
तो वह तुम हो ।
होकर भी नहीं हो तुम।
बहुत कुछ शेष है अभी,
बहुत कुछ होना है जो घटित होना है।
उसके बाद ही तुम्हें सम्पूर्ण होना है।
हे परमात्मा !
मुझ आत्मा को विलीन होना है अभी तुममें।
मेरा स्थान अभी रिक्त है तुम्हारे भीतर।
फ़िर तुम सम्पूर्ण कैसे हुए?
तुममें समा कर मैं शायद पूर्ण हो जाऊँ;
किन्तु तुम?
तुम तो तब भी अपूर्ण ही रहोगे
क्योंकि --
मुझ जैसी कितनी आत्माओं की रिक्तता से
भरे हो तुम ।
जानें कब पूर्ण रूप से भरेगा तुम्हारा यह--
रीतापन , खालीपन
जाने कब तक ?
जाने कब तक ?
----
दीप्ति मिश्र की किताब ' है तो है ' से ....

Wednesday, November 22, 2006

एक खूबसूरत फ़िल्म - डोर

कभी कभी कई वर्षों में एक फ़िल्म ऐसी आती है जिसे देखनें के बाद लगता है जैसे आप नें एक बहुत अच्छा काम किया हो , एक सुन्दर सा अहसास छोड जाती है और आप का फ़िल्मों के प्रति एक नया 'विश्वास' सा बननें लगता है । 'डोर' एक ऐसी ही फ़िल्म है ।

एक चुनौती भरा विषय लेकिन विषय पर 'फ़ोकस' सीधी सादी पटकथा , बेकार की नाटकीयता नहीं , सुन्दर - सहज अभिनय , खूबसूरत 'फ़ोटोग्राफ़ी' ।

कहानी बता कर आप का मज़ा नहीं बिगाड़ना चाहता ।

'गुल पनाग' (जिन की मैं शायद पहली फ़िल्म देख रहा था) का अभिनय फ़िल्म की जान है । अपनें किरदार को जिया है उन्होनें । उन की आंखों में चमक , अपनें लक्ष्य के प्रति ईमानदारी और विश्वास देखनें लायक है । श्रेयस तलपदे (जिन्हे पहले 'इकबाल' में देखा था) एक हल्की फ़ुल्की भूमिका में बहुत जमें हैं और फ़िल्म को गम्भीर होनें से बचाते हैं । उन का फ़िल्म के अंत में 'गुल पनाग' से अपनें प्रेम का इज़हार और उतनी ही सहजता से 'गुल पनाग' का उत्तर याद रहेगा । आयशा टकिया का अभिनय भी अच्छा है । किरदार की मासूमियत को उन्होनें अच्छा निभाया है । फ़िल्म में जयपुर और जोधपुर के खूबसूरत स्थानों को चुना गया है जो देखनें लायक हैं ।

नागेश कुकुनूर का निर्देशन बहुत कसा हुआ है , एक लीक से हट कर कहानी का चुनाव किया है उन्होनें (अपनी पिछली फ़िल्म इकबाल की तरह) । नागेश की उम्र बहुत कम है , उन से आगे बहुत सम्भावनायें हैं ।

'डोर' पिछले कई वर्षों मे आनें वाली सर्वश्रेष्ठ फ़िल्मों मे से एक लगी । अगर हाथ लगे तो ज़रूर देखियेगा और बताइयेगा कि फ़िल्म और मेरी पहली 'फ़िल्म आलोचना' कैसी लगी ?